एक करिशमई आदिवासी व जननायक
19वीं सदी में बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक अहम जननायक के रूप में उमरे थे। वही जब राष्ट्रवादियों ने आजादी की बाद भारत की विविधताओं को जोड़ने का मुश्किल काम शुरु किया तो इसमें कुछ बाहर ही छूट गए। वहीं उन बाहर छूट गए लोगों में ज्यादातर लोग वहां के ही रहने वाले यानि कि वहां के मूल निवासी थे जिन्हें अब आदिवासी कहा जाता है।
आदिवासियों द्वारा अपनी जमीन की लड़ाई की विरासत सदियों पुरानी है लेकिन अब व्यक्तिगत संघर्ष के किस्से इतिहास के किताबों से गायब हो चुके हैं लेकिन 19वीं सदी के विद्रोही नायक बिरसा मुंडा का जीवन एक अपवाद है जिनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने मुंडाओं के महान आंदोलन उलगुलान को अंजाम दिया।
बिरसा मुंडा का जन्म और प्रारंभिक जीवन-
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था। उनकी मुंडा जाति बिरहत कुल परिवार का एक हिस्सा थी। मुंडा रीती रिवाज के अनुसार उनका नाम बिस्सा रखा गया था |
बिरसा के पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटू था। आपको बता दें कि बिरासा मुंडा के जन्म के बाद उनका परिवार रोजगार की तलाश में उलिहतु से कुरुमब्दा आकर बस गया था। जहां वो खेतो में काम करके अपना जीवन चलाते थे। उसके बाद फिर काम की तलाश में उनका परिवार बम्बा चला गया। इसलिए उनका बचपन यहां से वहां पलायन करते हुए बीता। वैसे तो बिरसा मुंडा Birsa Munda का परिवार अक्सर घूमता ही रहता था, इनके रहने का कोई एक निश्चत ठिकाना नहीं था, लेकिन बिरसा मुंडा का ज्यादातर बचपन चल्कड़ में बीता था।
बांस की झोपड़ी में पले बड़े बिरसा बचपन से अपने दोस्तों के साथ रेत के ढ़ेर में खेलते रहते थे और थोड़ा बड़ा होने पर उन्हें जंगल में भेड़ चराने जाना पड़ता था। अपने शुरुआती दौर में बिरसा मुंडा की ख्याति पहले एक ओझा के रूप में फैली और फिर अंग्रेजों, भारतीय दलालों को ईसीई धर्मगुरुओं से अपने लोगों की रक्षा करने वाले एक नायक के रूप में उभरी।
बिरसा मुंडा की पढ़ाई-लिखाई –
बिरसा मुंडा के परिवार की आर्थिक स्थिति सही नहीं होने की वजह से उन्हें उनके मामा के गांव अयुभातु भेज दिया गया। अयुभातु गांव में बिरसा दो साल तक रहे और उन्होनें अपनी प्रारंभिक शिक्षा सकला से ग्रहण की। बिरसा पढ़ने में बचपन से ही बहुत होशियार थे। इसलिए उन्होंने स्कूल चलाने वाले गुरु जयपाल नाग से ज्ञान प्राप्त किया। जिसके बाद उन्हें जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने के लिए कहा गया। लेकिन उस समय क्रिस्चियन स्कूल में एडमिशन लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था।
इसलिए बिरसा ने अपना धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख दिया जो बाद में बिरसा दाउद हो गया था। हालांकि कुछ सालों बाद बिरसा ने क्रिस्चियन स्कूल छोड़ दिया था, क्योंकि उस स्कूल में आदिवासी संस्कृति का मजाक बनाया जाता था जो कि बिरसा मुंडा को बिल्कुल भी पसंद नहीं था। फिलहाल इसके बाद वे अपने गांव वापस लौट आए और यहां अपने एक हिन्दू बनकर दोस्त के साथ रहने लगे। और यहीं उन्हें एक वैष्णों संत की संगत मिली और वे ओझा के रूप में मशहूर होने लगे और यही से उनके जीवन में
बदलाव लाया।
इसके बाद महानायक बिरसा मुंडा का संपर्क स्वामी आनन्द पाण्डे से हो गया। आपको बता दें कि आनंद पांडे ने ही बिरसा मुंडा को हिन्दू धर्म और महाभारत के पात्रों का परिचय कराया। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में एक अंग्रेजी कंपनी भारत के दो-तिहाई हिस्से में कब्जा कर चुकी थी और यह सिलसिला अभी भी बदस्तूर जारी था। 19वीं सदी के बाद उन्होनें भारत के रियाहसी हुकूमत वाले हिस्से को भी जीत लिया था, वहीं बिरसा मुंडा के इलाके छोटे नागपुर में नियंत्रण के लिए वन्य कानून समेत कई अन्य कानून भी लागू कर दिए गए और देखते ही देखते आदिवासियों से उनके अधिकार छीने जाने लगे थे। वे न तो अपनी भेड़-बकरियों को चारा खिला सकते थे और न वे जंगलों से लकड़ियां इकट्ठा कर सकते थे। जिससे उन लोगों अपने जीवन- – यापन करने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था।
वहीं इसी दौरान अंग्रेजों ने जंगलों की बाहरी सीमाओं पर बाहरी लोगों की बस्तियां बसाना शुरू कर दिया था वहीं मुंडा जिस जमीन को अपनी सांझा समपत्ति समझते थे, अंग्रेजों ने उनका मालिकाना हक भी उन बाहरी बस्ती के लोगों को दे दिया। अपनी जवानी के दिनों में बिरसा मुंडा, इन अंग्रेजों, मिशनरियों और बाहरी लोगों के खिलाफ होने वाले आंदोलन का हिस्सा बन चुके थे।
अंग्रेजों के खिलाफ मुंडा ने की विद्रोह की घोषणा-
1895 में बिरसा मुंडा घोषणा की “हम ब्रिटिश शाशन तन्त्र के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा करते है और कभी अंग्रेज नियमों का पालन नही करेंगे, ओ गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजो, तुम्हारा हमारे देश में क्या काम ? छोटा नागपुर सदियों से हमारा है और तुम इसे हमसे छीन नही सकते है। इसलिए बेहतर है कि वापस अपने देश लौट जाओ वरना लाशों के ढेर लगा दिए जायेंगे। इसके बाद उस पहाड़ी पर देखते ही देखते हजारों लोग इकट्ठा हो गए। जहां अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, लेकिन हजारीबाग केन्द्रीय जेल में दो साल की सजा ने बिरसा मुंडा की ख्याति को और अधिक बढ़ा दिया ।
बिरसा मुंडा की मृत्यु-
1898 में अपनी रिहाई के बाद बिरसा मुंडा ने ब्रिटेन की महारानी का पुतला फूंकने का आदेश दिया और इसके अगले साल 1899 में उन्होनें और उनके चाहने वाले लोगों ने वही किया जिससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गई । बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। तीर धनुष, कुल्हाड़ी और गुलैल से लैस मुंडाओं ने अंग्रेजों और उनके दलालों के खिलाफ धावा बोल दिया, उनकी संपत्ति को जला दिया और तो और कई पुलिस वालों को मार गिराया।
इस लड़ाई में पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी, लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं। वही उलगुलान के नाम से मशहूर ये बगावत ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई। लेकिन अंग्रेजों ने इस आंदोलन को बुरी तरह कुचल डाला और 3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा को भी चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिया गया और इसके एक साल बाद जेल की काली कोठरी में हैजे से उनकी मौत हो गई।
हालांकि उनकी मौत के बाद सरकार ने रांची एयरपोर्ट और जेल का नाम उनके नाम पर रख दिया। उनकी एक तस्वीर भारतीय संसद में भी लगाई गई है। वहीं आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुडा को भगवान की तरह पूजा जाता है और उनके बलिदान को याद किया जाता है।
लोकप्रिय संस्कृति :
15 नवंबर को बिरसा मुंडाजी की जयंती मनाई जाती है खास तौर पे तो कर्नाटक के कोडागु जिल्हे में मनाई जाती है। कोकार रांची में जो झारखंड की राजधानी है यहा पर उनकी समाधी स्थल पर बहुत से कार्यक्रम मनाए जाते है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई अड्डा Birsa Munda Airport भी है। उनके नाम से कई संस्था, कई यूनिवुसटी और कई इंस्टीट्यूशन भी बने है। 2008 में बिसरा के जीवन पर आधारित एक हिन्दी फिल्म ” गाँधी से पहले गंधिवास” बनी जो इकबाल दुररन के निर्देशन में बनी जिसने नोवेल पुरस्कार भी जीता है। फिर एक और लहदी फिल्म 2004 में ‘उलगुलान एक क्रांति’ बनी जिसमें 500 ब्रिटिश भी शामिल है।
“महाश्वेता देवी” एक लेखिका को 1979 में ‘अरण्येर अधिकार” के लिए उन्होंने साहित्य अकेडमी पुरस्कार मिला यह पुरस्कार उन्हें मुंडाजी के जीवन के बारे में बताया जिसमें उन्होंने 19वीं सदी में ब्रिटिश राज के बारे में भी बताया था। इसके बाद उन्होंने युवाओं के लिए मुंडाजी पर आधारित एक और साहित्य लिखा था।
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